Monday, September 10, 2012

छुपती है दुनिया इस कारवाँ में



छुपती है दुनिया इस कारवाँ में

हर चेहरा है छुपता किसी दूसरे में

वीराने पथ पर चलता हूँ पथिक अकेला

कारवां में तो खूब सजा है मेला



कभी पुछा किसीने कि,

किस चीज़ का है ये मेला?

क्या क्या बिका है यहाँ,

या खुद बिका है मेला?



कैसा है कारवाँ यह,

क्या है यह झमेला

एक कारवाँ में क्यों,

हर पथिक है चलता अकेला



खेल अनोखे मेले में है

है रंग अनोखा इसका

जीतने के लिए है मस्का

और हराने का है सबको चस्का



कभी पूछा है कारवाँ से

कि उसकी मंजिल है किस ओर?

या फिर यह मुड़ता है

कि जिस तरफ बड़ा है ज़ोर?



वाह क्या अजब का रचा है मेला

हर आदमी खड़ा है लेकर अपना ठेला

क्या क्या न बिका यहाँ यह पूछो

पहेली यह बूझ सको तो बूझो



वीराना शायर कुछ लिखना है चाहता

कागज़ कलम भी तो मेले में है बिकता

आंसू पर किसीके न कभी रोया है मेला

शर्म को भी तो इसने है बेचा हर सवेरा







भूक को बेचा है, दर्द को भी है बेचा

हो सके तो लाश को भी है सजाकर बेचा

किसीने गुर्दा है बेचा तो किसीने दिल भी है बेचा

किसीने बेटी को बेचा तो किसीने माँ को भी है बेचा



बेचने का यह कैसा होड़ लगा है अन्दर

होड़ के कोड ने यह क्या सजाया मंज़र

बच्चों कि तकदीर में घुसाया खंजर

मेला है या है दुःख का समंदर



मजबूरी है सबकी जो मेले में है घुसते

रंगीन मेले में जो बेचा, तो है वो फसते

एक भी चेहरा न दिखा है हँसते

ज़िन्दगी खुद बिकी है यहाँ बहुत सस्ते



हर कोई बेचता है यहाँ जो सामान उसका नहीं

उधार पे जो लाया, वो बेचा है, पूछने वाला कोई नहीं

ए खुदा तू रहम इतना मुझपर कर दे

कुछ भी न बेच सकू यहाँ,

ऐसा कुछ सामान मेरी झोली में भर दे

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