ग़म-ए-शब् कि जैसे, अब लत हो चली है
तल्क भरी हर शाम, अब नशीली लग चली है
तन्हाई बिन ये बिस्तर, अब सूना लग चला है
आंसू बिन हर शक्स, अब प्यासा लग चला है
सब जीते है कैसे, कि अब ज़िंदगानी मर चली है
सब हँसते है क्यों, कि अब खुशियाँ मर चली है
इंसान को कोई पैगाम दे कि इंसानियत मर चली है
खुदा को कोई बताये, कि उसकी हस्ती मर चली है
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